معنوی عشقی گزینی با خدا | | 4 | 123 | 6 |
جلوه گر ، ما بینِ ملّت با هنر | | 5 | 129 | 6 |
خیالاتی برایم هست رؤیا | | 4 | 151 | 6 |
تابش از عینی به قلبی کن بتاب | | 6 | 132 | 6 |
سناریو نویسی با چه ترفند | | 2 | 155 | 4 |
صدر عالم را برایش جان پناه | | 4 | 127 | 4 |
نامه 53 : از منظومه ولایتنامه حضرت علی(ع) | | 3 | 124 | 4 |
جنتی همچون زمان اردیبهشت | | 4 | 145 | 10 |
نفس پاکی روح را شد رهنما : از منظومه وادی بهشت | | 4 | 149 | 6 |
چرخ زمان را نگر همچو معلم تو را | | 2 | 139 | 10 |
گر جهان درگیر ویروسی شده | | 4 | 172 | 4 |
به یک شرطی رها از دنیوی جانب به عقبایی | | 4 | 100 | 6 |
میان اویی اجل ، گر گفتمانی | | 6 | 90 | 6 |
به یاد خضر نبی یاد کن بهاری را | | 4 | 140 | 12 |
یادی کنم از شاعران از ابتدا تا انتها | | 4 | 132 | 6 |
بهاریه 1399 : هر روزتان نوروز | | 6 | 130 | 4 |
کدامین عشق را گاهی بیانی | | 3 | 114 | 10 |
بعثتی را یاد آور ، هم قرین | | 4 | 106 | 12 |
از خوشه پروینی کنی یادی ز آذربایجان | | 8 | 135 | 14 |
چرخه با تولید ملّی در جهش | | 8 | 343 | 14 |
چه گوهر باشد ارزش تر ، ز موجود | | 6 | 121 | 14 |
من شدم با ، نقطه بسم الله ، هان | | 6 | 125 | 7 |
خوبان در انزوایی فارغ ز نفس خاطی | | 8 | 129 | 20 |
هر یک ولایت بین ما ، با عدل گردد آشکار | | 6 | 134 | 19 |
منتظر آن نازنین دهری که آل | | 5 | 131 | 16 |
مناجات | | 10 | 153 | 24 |
جایی که او باشد ولی از ماورا بحثی مکن | | 10 | 129 | 20 |
غرض این است که از آمدنم رنج کشم | | 7 | 92 | 12 |
آن قلم زیبا جهت را اختیار | | 7 | 95 | 16 |
ریاضت را پذیرش سمت عرفان | | 10 | 135 | 26 |
میلاد مسعود یگانه منجّی عالم بشریّت | | 10 | 201 | 26 |
» مهدی موعود می آید به ایران غم مخور | | 8 | 137 | 24 |
چه کنم طلب به نجف کنی که دمی فضای دل ولی | | 11 | 184 | 30 |
هزار جرعه از این نهر شهد نوشیدم | | 10 | 167 | 26 |
این هنری نظم کلام ولی | | 9 | 146 | 28 |
از آن دامی که می دانم رهیدن سخت می باشد | | 9 | 143 | 22 |
مرا چو غنچه ببودم ادب نمودی گل | | 6 | 140 | 16 |
دریای احمد را ببین موجش علی گشته ولی | | 9 | 116 | 24 |
تو شمع بزم کلاسی و رزم سنگر عشق | | 6 | 128 | 14 |
به دعای صبح خیزان ببری ز ما ، بلایی | | 4 | 113 | 12 |
در وادی دریای خون خطِّ مقدّم را ببین | | 6 | 123 | 18 |
هر که در دل آتشی دارد ولی ( تضمینی از مولوی ) | | 6 | 132 | 14 |
از تو امدادی طلب یا رب به داد ما تو رس | | 9 | 121 | 18 |
حکمت 77 : شناسایی دنیا | | 3 | 129 | 17 |
از حرف انا الحق چو شنیدی ارنی را | | 7 | 155 | 18 |
خوش به حال آنکس دعایش استجابت ای ولی | | 7 | 110 | 18 |
حلول ماه صیام | | 10 | 145 | 28 |
فریاد از مقام مجاز و رفیق جاز | | 9 | 135 | 22 |
بر کدامین کوی روی آرم ببینم جلوه اش | | 10 | 164 | 20 |
باب عرفانی گشا بر روی هر صاحب دلی | | 7 | 140 | 24 |
از کعبه رخت بندید تا کعبه درون را | | 6 | 109 | 14 |
در میان کوه فلک افلاکی | | 6 | 145 | 24 |
فرزند علم باش در این ره خروش کن | | 10 | 109 | 22 |
خوری تو دود هنر دیگری بگیرد میز | | 12 | 170 | 46 |
تا که حاکم مردی از خاندان من | | 5 | 127 | 14 |
دل و جان فدای سلطان غریب ثامن الحق | | 7 | 130 | 32 |
مناجات | | 10 | 232 | 38 |
بشر را آزمونی سلطنت بر نفس خود گویا | | 7 | 131 | 28 |
اندیشه چو گنجی دان چون ذکر زبان مرهم | | 7 | 240 | 30 |
یاد وطن گشت چو مادر عزیز | | 6 | 105 | 26 |
یک نفر در سجده خواهان کمک | | 7 | 134 | 16 |
ای والیا ! گویم تو را کتمان مکن شیدای من | | 7 | 125 | 16 |
تویی معلّمِ انسانِ ابتدا مادر | | 6 | 101 | 14 |
یا ثامن الحُجج ، نظری کن مرا ، به دم | | 5 | 107 | 22 |
کهنه نو را صیغه ای باشد چه هان | | 10 | 171 | 24 |
مردن تن بهتر از مرگ حیاست | | 10 | 159 | 27 |
به علی و وحی مُنزل بشناختم خدا را | | 7 | 135 | 16 |
با کمیل ام آشنا ساز ای علی | | 7 | 170 | 18 |
چه گویمت ز دردِ دل نه کاهشی به گفتمان | | 9 | 173 | 30 |
با قدر گاهی قضایی روبرو | | 7 | 143 | 16 |
صد سؤال دو حبر یهودی از حضرت امیرالمؤمنین | | 10 | 182 | 38 |
باب عرفانی گشا بر روی هر صاحبدلی | | 10 | 159 | 24 |
چه شاعری و طبیبی ، هنروری رسّام | | 7 | 168 | 18 |
گوئیا آمد قیامت روز هان | | 7 | 198 | 26 |
بوسه زنی برلبی لعل رمانی شراب | | 8 | 184 | 22 |
اگر آن روز خدا پرده یِ اسرار کشد | | 8 | 232 | 28 |
ای قلم | | 5 | 128 | 16 |
بنازم بر وجودی نازنین مشکل گشایی هان | | 8 | 145 | 22 |
شاعر خورد ز جیبش خدمت کند به عالم | | 5 | 137 | 16 |
ریاضت را پذیرش سمت عرفان | | 8 | 164 | 24 |
والی به عشق اویی خودی پیدا کند در بندگی | | 11 | 143 | 30 |
در بزم آن پری رخ سلطان دین رضا | | 7 | 156 | 18 |
وطن خواهد مرا یاری | | 12 | 135 | 35 |
حق عیان کتمان چرا حق را بیان | | 12 | 172 | 28 |
گوشه ای خلوتی که با اویی | | 9 | 185 | 20 |
ماجرایی که ره عشق ز خرداد کشم | | 11 | 141 | 30 |
در وادی دریای خون خط مقدّم را ببین | | 10 | 145 | 24 |
ساغر از فهم تو گیرم نوش سازم دلبرم | | 8 | 124 | 18 |
جشن ما دیمی نشینان آن زمان | | 7 | 104 | 18 |
بی اعتباری دنیای حرام | | 10 | 200 | 32 |
ای خاکباز عشق | | 10 | 174 | 16 |
هر تمدّن رشد با تولید خود | | 7 | 146 | 16 |
خوش بیاسا چون تویی میلاد عشق | | 9 | 127 | 16 |
شعر من | | 11 | 132 | 24 |
شمعی که سوز دارد و پروانه سوزناک | | 11 | 125 | 22 |
تخریب اقتصادی با اختلاس | | 15 | 196 | 30 |
خوش به احوالت گلستان را شدی چون باغبان | | 6 | 131 | 14 |
گلهای هرز رفته تبر داس را طلب | | 13 | 148 | 26 |
قلم داری تو حاکم بر الفبا | | 12 | 158 | 29 |
شدی محبوب عالم ای بشر خاک | | 11 | 157 | 24 |
هزار مرغ سحر خفته اند در شَطِ خون | | 9 | 155 | 18 |
والیا گوش کنی پند بگویم شنوی | | 8 | 153 | 18 |
غیر خالق کس نمی بینی در عالم جان پناه | | 8 | 141 | 22 |
آه ای جلوه نور | | 13 | 138 | 35 |
خصلتی دهگانه سگ را گوش کن تا بشنوی | | 6 | 147 | 22 |
با ولی راهی شو | | 11 | 139 | 22 |
به پیر میکده بادا سلام ما به دمی | | 5 | 115 | 14 |
صید دل کردی مرا با آن نگاهی نازنین | | 9 | 133 | 22 |
آن خط و خال نقطه راه من و ولی است | | 8 | 116 | 22 |
والیا ! ضامن آهوی بیابانی هست | | 9 | 145 | 22 |
به میشان رحم کن ای گرگ خاکی | | 8 | 129 | 18 |
این عبادت ها که کردم عابد و خلوت نشین | | 11 | 127 | 24 |
جان های سوخته به تو کردند اقتدا | | 10 | 145 | 22 |
مادری دارم پیر | | 9 | 112 | 16 |
گر شجر گفت به مهمان عزیزش رازی | | 8 | 109 | 18 |
شب تاریک را گشتم حیاتی گیرم از ظلمت | | 10 | 135 | 22 |
ز درون پیش کشی می کنمش تا گوید | | 11 | 141 | 20 |
ناله ها بی تاب شد آهی نماند | | 12 | 119 | 22 |
چه کس باید رعایت نظم قانون | | 8 | 104 | 20 |
ساغر از فهم تو گیرم نوش سازم دلبرم | | 12 | 141 | 22 |
هر که من مؤلای او هستم علی مؤلای او | | 10 | 118 | 20 |
حاجی به یقین بار سفر بند چه انسان | | 11 | 131 | 24 |
علم را بالی به تقوایی شتاب | | 12 | 127 | 20 |
جُرم دانایی چه باشد ای عزیز | | 11 | 103 | 24 |
هفت وادی راه را طی جان من | | 9 | 95 | 22 |
قلیلی علم را کردی عطایی | | 8 | 127 | 16 |
بین پیری کوزه ای شد گفتمان | | 10 | 130 | 18 |
مناظره حضرت سلیمان با بلبل | | 12 | 113 | 26 |
رخ تماشایی حیایی را ببین | | 9 | 117 | 22 |
مضراب را ای نازنین بر سینه ام کش تا ببین | | 9 | 145 | 28 |
جاه شاهی طلبی عزّت خاکی بنما | | 14 | 118 | 30 |
در بین هر یک اولیا میزان تویی ای شاه دین | | 11 | 160 | 40 |
به بیروتی نگاهی کن چه غوغا | | 7 | 108 | 14 |
آن قلم زیبا جهت را اختیار | | 8 | 136 | 18 |
زیر سر بالش ز خاکی نرم هان | | 8 | 138 | 26 |
ندا شد هل معین یاری نیامد | | 9 | 122 | 26 |
مکتب دین پدر خطِّ صراط نبوی | | 13 | 153 | 24 |
در آسمان ادب بنگرم که در دو جهان | | 14 | 177 | 51 |
تقدیم به ناقدان عروض خوان نه عروض دان | | 13 | 183 | 43 |
طوافی قبر آن شش گوشه ای را | | 9 | 163 | 32 |
آزاد مرد عرصه یِ گیتی به رزم ِجان | | 9 | 140 | 18 |
نمونه ا ی از شجاعت عباس ، یادی از مؤلای متّقیان امام علی(ع) | | 8 | 130 | 24 |
جنگ امام حسین علیه السّلام | | 9 | 147 | 22 |
از تو دارم من سؤالی ؟ سائلی لا ، جانِ من | | 10 | 130 | 24 |
والیا ! خیمه یِ عاشق ، به سماوات بَری | | 8 | 114 | 22 |
محرم است و صفر ، عاشقا ، حقیقت بین | | 11 | 118 | 26 |
هر صباح از دور خوانم آرزوی کربلا | | 12 | 135 | 20 |
از دست لجبازی تو، اندیشه ام لجباز شد | | 14 | 372 | 30 |
زرنگاری ، خانه هایی را ، نگاه | | 10 | 122 | 20 |
آتش عشق منم | | 8 | 99 | 16 |
آمدم از راه دوری گر چه مهمانم حسین | | 6 | 136 | 16 |
با فراهم سیم و زر دنیای دون | | 7 | 136 | 14 |
ارشاد قلم | | 6 | 101 | 12 |
به فردی فکر منجّی در جهانی | | 7 | 146 | 12 |
عبور حضرت عیسی علیه السّلام با حوّاریان از کربلا | | 7 | 128 | 22 |
به اعمالی نظر دوری ز کفران | | 6 | 99 | 12 |
ذهنم خموش نیست | | 8 | 137 | 18 |
انسان و دریا | | 8 | 117 | 20 |
این را بگویم کن سفر بنگر در این صحرای عشق | | 8 | 120 | 24 |
او که خاتم انبیا صاحب نُبی | | 7 | 119 | 18 |
چون بنگری برگ خزان یاد آوری باید روی | | 9 | 130 | 22 |
نشسته ام لبِ جویی به دور دست نگاه | | 8 | 130 | 20 |
هاتفی بانگی بزد گفتا خموش | | 11 | 118 | 24 |
آن زمان معدوم هق هق های من | | 6 | 112 | 18 |
تنهایی دانایان در عزلت تنهایی | | 6 | 125 | 18 |
اهل هنر را کنی ، یاد ، رهایی ز خاک | | 9 | 182 | 33 |
خون خالق را ببین در خون خلقی شد روان | | 6 | 118 | 22 |
تغییر حِیل روحی هر لحظه نمایانی ( هشتم مهرماه : روز بزرگداشت مولوی ) | | 7 | 140 | 16 |
با همان ایما ،بیانی ،حرف را | | 5 | 109 | 14 |
شعله در خرمن و من سوخته دل ای عابد | | 10 | 104 | 22 |
سبوی آتشین گیرم ز دستش | | 11 | 115 | 28 |
خاک خوردم به پای مکتب خویش؛ تخته گچ پاک کن دلم درویش | | 11 | 127 | 32 |
جای فریاد است بلبل ناله ای | | 6 | 128 | 14 |
عشق چون موج هویداست ولی ؛ آب چون آیینه پیداست ولی | | 8 | 113 | 18 |
مشک خالی و لب تشنه و سوز دل طفلان | | 8 | 113 | 18 |
تا سحر شب ها تماشا ماه را | | 9 | 145 | 26 |
به مناسبت بیستم مهر ماه روز بزرگداشت غزل سرای بزرگ حافظ شیرازی | | 5 | 112 | 26 |
یکی را می پرستی گر چه فانی | | 8 | 115 | 18 |
دهی آزار ما را ای فلک جان | | 10 | 150 | 28 |
نبینی بختِ هر شوریده ای را | | 5 | 106 | 10 |
خلق را سرکیسه کردی با زبان | | 8 | 133 | 26 |
دور از طوطی مقلّد یاوه گو | | 10 | 111 | 22 |
کائناتی عشق دارد ای عزیز | | 7 | 105 | 20 |
مناظره امام رضا علیه السّلام با چند تن از علمای سایر ادیان در مجلس مأمون | | 7 | 113 | 16 |
ای نیک نام دوران در کوی نیک نامان | | 9 | 129 | 18 |
همچو تمساحی مداوم اشکریز | | 8 | 114 | 20 |
که با یک شغل راحت زندگانی | | 8 | 109 | 18 |
بمیرید بمیرید جهانی بجویید | | 6 | 112 | 12 |
بیان گوشه ای از تاریخ جهان | | 9 | 95 | 20 |
منم کاوه دادخواهی که ایران | | 9 | 97 | 18 |
حال بینم این زمین در تنگنا | | 8 | 131 | 26 |
بی هنر عیبی ببیند همچو لوچی یک دویی | | 2 | 85 | 4 |
با غنا فرهنگ رشدی در جهان | | 4 | 88 | 8 |
تا کی قلم فرسا کنم با این کلامی فارسی | | 5 | 93 | 12 |
چون چراغی رهنما هر چند پند | | 10 | 153 | 20 |
ای وای به مردمان تاریخ | | 13 | 132 | 30 |
سوره یس / ای سید رسولان بشنو پیام ایمان | | 13 | 130 | 20 |
بمناسبت ولادت حضرت محمّد "ص " خاتم الانبیا | | 9 | 123 | 20 |
روی آوردم که بینم عشق را در جسم و جان | | 8 | 116 | 14 |
می شناسی آن چهل ابدال را | | 10 | 175 | 18 |
با ترنجی قالبی ، نظمی رسا | | 11 | 155 | 22 |
مرگ سبزی را کنی یادی دلا | | 6 | 101 | 10 |
گر چه خلق آزار اهل الله را | | 11 | 88 | 18 |
از هدایت پرچمی کن پیروی | | 8 | 119 | 12 |
رقص قلم شعر شد دور ز جوری جفا | | 10 | 105 | 16 |
طرح دارد گر ولی ، چون اولیا | | 9 | 125 | 19 |
به امید ناجی | | 7 | 104 | 16 |
فرد عادی بهتر از سالک شمار | | 10 | 91 | 18 |
خاطری خوش ، ذهن نوپرداز را | | 9 | 136 | 14 |
کلامی را کنی احیا تو شاعر | | 8 | 130 | 18 |
یاد آذربایجان کن تکّه ای از جانمان | | 9 | 122 | 16 |
هر کجا باشم چه ظاهر یا نهان | | 9 | 119 | 16 |
به خاطر خوف از شورش عمومی | | 11 | 110 | 20 |
با صفا جایی چه زیبا پارسا | | 8 | 150 | 16 |
یاد آور مرگ سرخی را بدان | | 7 | 107 | 16 |
شد تداعی ترکمانچایی به یاد | | 7 | 93 | 10 |
مغنّی بکش پرده را با طرب | | 8 | 124 | 20 |
آه از آن روزی که عابر از دیار | | 9 | 100 | 18 |
افتخاری شیعه را ، هر لحظه ای | | 8 | 121 | 14 |
با خدا گشتیم هر جا همنشین | | 7 | 118 | 16 |
از سما صادر به آهی ، هر بلا | | 9 | 110 | 14 |
جدا از یاد همسر پور جانا | | 11 | 158 | 26 |
جهان اگر به گدایی دهی نما چو گدا | | 9 | 128 | 14 |
اهورا عشق را بینی به سیما | | 10 | 110 | 18 |
با سفیدی مرگ اهل الّلهیان | | 6 | 84 | 12 |
در حجابی همچو طوطی گفتمان | | 8 | 133 | 14 |
خاک ره شو که نیست ملک جهان | | 12 | 134 | 22 |
خاک ره شو که نیست ملک جهان | | 10 | 123 | 18 |
خاک ره شو که نیست ملک جهان | | 14 | 149 | 27 |
خاک ره شو که نیست ملک جهان | | 11 | 167 | 22 |
خاک ره شو که نیست ملک جهان ( بندهای پنجم ، ششم و هفتم ) | | 9 | 133 | 22 |
به حرمت هر هنرمندی که بینی | | 9 | 112 | 16 |
چه آهنگ خوش نغمه ای ماجرا | | 14 | 126 | 28 |
خاک ره شو که نیست ملک جهان | | 8 | 135 | 16 |
قدر زنجیر بندد پای دل را | | 8 | 95 | 18 |
جمع احبابی بدیدم با حبیب | | 9 | 98 | 16 |
نکوداشت شب یلدا | | 12 | 123 | 28 |
خاک ره شو که نیست ملک جهان ( بند نهم ) | | 7 | 126 | 20 |
رو زمین افتاده خاکی ماجرا | | 9 | 117 | 22 |
رایانه | | 10 | 130 | 18 |
چه باید گفت از مردان نانی | | 12 | 119 | 24 |
هر یکی را جایگاهی غبطه لا | | 8 | 117 | 14 |
خاک ره شو که نیست ملک جهان ( بند دهم) | | 9 | 150 | 20 |
گر چه موزونی کلامی آشکار | | 8 | 116 | 16 |
حُبِّ ذاتی را کناری زن بیا | | 10 | 113 | 20 |
خفی ذکری چه قلبی یا زبانی | | 10 | 113 | 18 |
خاک ره شو که نیست ملک جهان ( بند یازدهم ) | | 7 | 135 | 14 |
آفرینش کائناتی با کلام | | 5 | 94 | 10 |
شاعری با حس درکی نطق را | | 9 | 141 | 18 |
من مانده در این دیار غربت | | 7 | 142 | 16 |
همان دلبر عروسی را کنی یاد | | 9 | 111 | 20 |
پیشکش شهری کند بر پادشاه | | 12 | 134 | 22 |
خاک ره شو که نیست ملک جهان ( بند : پایانی) | | 6 | 129 | 12 |
با نمود آوای خطّی ای رها | | 7 | 96 | 14 |
همچو گل صد برگ دارد صد نوا | | 13 | 109 | 20 |
یادی کنم امروز از ایام دیرین | | 6 | 154 | 14 |
علم را یاد از کهن پیری کند | | 9 | 102 | 16 |
سمت سیمرغی گشایی بال و پر | | 8 | 110 | 14 |
شد تداعی ترکمانچایی به یاد | | 8 | 111 | 14 |
دور از خلقی که با خالق قرین | | 9 | 109 | 14 |
یا علی شب غسل ده تنها مرا | | 6 | 105 | 14 |
والیا !ضامن آهوی بیابانی هست | | 10 | 113 | 20 |
ولی چه سود کشمکش که حاصلش بشد مزار | | 9 | 98 | 16 |
نظر به آدمی بشد وجود گشت چیستی | | 5 | 103 | 10 |
چه سنگ ها که پرت شد به زیر پایِ عاقلی | | 8 | 128 | 14 |
نام من را ، ثبت کن در دفترت | | 7 | 124 | 14 |
یک زبان واحد به هر لفظی بیان | | 5 | 97 | 12 |
کائناتی را زبانی ای عزیز | | 12 | 129 | 18 |
خوی استبداد هر یک جانیان | | 8 | 108 | 12 |
نیمه پر ظرفی ببینی فهم لا | | 6 | 91 | 10 |
روی ما آن باب عرفان را گشا | | 11 | 120 | 22 |
این کسان آنان چو صالح بنده ای | | 5 | 103 | 12 |
با معاصر شاعرانی دیده ور | | 8 | 128 | 16 |
ذوق داری با هنرمندی دلا | | 7 | 90 | 16 |
هر چه بینی غیرِ خود کوچک شمار | | 9 | 143 | 16 |
صوت را رسمی کند شکلی نما | | 8 | 97 | 14 |
والیا جلوه حیاتی بنگر حُسن نه بد | | 7 | 148 | 14 |
ای حاکم روزگار اندیشه نو | | 5 | 78 | 10 |
با زبانی آشنایی ، ای رها | | 7 | 80 | 14 |
همّتی کن کار بندی عقل را | | 10 | 118 | 18 |
با خدایی نام او ،هر جا زبانزد بینِ خلق | | 11 | 127 | 16 |
به احسن مرحبایی وصف هر جا | | 9 | 112 | 14 |
ای که انسانی فراموش اجتماع | | 9 | 97 | 16 |
ذکر خالق کن ، پیامی از خدا | | 11 | 132 | 18 |
گر چه یک فرضیه ای باشد درست | | 15 | 218 | 26 |
خودنمایی واقعیّت ، ای عزیز | | 13 | 143 | 20 |
انتها را فکر کن ، اندیشه ای | | 10 | 120 | 14 |
لا گریز از مرگ ای انسان بدان | | 13 | 128 | 22 |
شدی صاحب قلم امروز و فردا | | 11 | 154 | 20 |
بشنوی ، درکی کنی با انتقاد | | 11 | 131 | 13 |
صاحب قلم شدی که بگیری مچی دلا | | 16 | 148 | 22 |
گوشه ای بنشسته ناظر بر جهان | | 8 | 146 | 10 |
حرف ها داری مگوها ، ای ولی | | 11 | 122 | 15 |
خوانده مهمان در لباسی میش و گرگ | | 12 | 129 | 14 |
بس کنی والی ولایت دار عشق | | 8 | 123 | 10 |
ای که عشقی را به قانونی نما | | 6 | 144 | 14 |
لحظه ای غمگین شوی دلواپسی | | 10 | 135 | 14 |
با غرض ورزی کنی کاری عزیز | | 6 | 141 | 14 |
دور شمعی جمع بس پروانه ای | | 7 | 146 | 8 |
فکر حوّل حال کن چون نوبهار | | 11 | 109 | 12 |
دیدگاهی را بیانی هر کسی | | 8 | 110 | 10 |
چه باید گفت ای راوی از این دیر | | 11 | 95 | 6 |
با دو دَم تیغی چه کاری می توان | | 6 | 109 | 12 |
در بین هر یک اولیا میزان تویی ای شاه دین | | 12 | 119 | 16 |
از حکومت بر شما محبوب تر | | 6 | 119 | 2 |
دست نیما بارور شد آن درخت | | 7 | 106 | 4 |
یاد تدوینی بیفتی عمر را | | 9 | 91 | 8 |
گر چه داغی سینه دارد ای عزیز | | 13 | 108 | 12 |
دم غنیمت یاد بیرونی کنی | | 10 | 95 | 6 |
دیده ای را انتخابی جلوه گر | | 11 | 95 | 10 |
محفلی برپا کنی هر کس به سمع | | 11 | 118 | 6 |
گر امانت مردمی را ، لا رعایت ، در جهان | | 7 | 76 | 4 |
برخیز ز فتنه ای رهایی | | 10 | 103 | 6 |
مناجات نامه ای بر سوره رحمن | | 10 | 112 | 6 |
دیدگاهی را بیان ، متراژ لا | | 9 | 72 | 6 |
جهانی را کتابی پاره فرضی | | 9 | 99 | 6 |
به یاد آن روز افتی ، لا که رؤیا | | 9 | 103 | 12 |
کاخی از نثر آفرینی نظم را | | 7 | 87 | 10 |
قُل تو بخوان تاج سر آورده ام | | 9 | 128 | 2 |
گر چه خشکی جلوه آرایی هنر | | 9 | 175 | 8 |
اژدها دیدم ، برون شد از زمین | | 12 | 144 | 10 |
با کتابی اُنس عالم روزگار | | 10 | 135 | 12 |
همچو گل باشی به زیبایی لطیف | | 10 | 187 | 20 |
عشق خالی ذهن را کن سفره ای | | 11 | 141 | 18 |
تا کی در انتظار بمانم چو روز و شب | | 13 | 170 | 16 |
مگر سندان بشد مغزی که دایم | | 6 | 108 | 4 |
سینه عطری حس کنم شیدا نما | | 8 | 128 | 10 |
محیطی با صفا جایی چه گویم | | 7 | 130 | 10 |
قائم قیامی می کند ، آن روز، جانا در زمین | | 8 | 122 | 13 |
مناجات نامه ای بر سوره نبأ | | 10 | 174 | 16 |
ای باهنر جهانی نظمی کشی به افکار | | 9 | 123 | 14 |
خاک ره شو اوج گیری جان من | | 8 | 117 | 12 |
طبیعت را نوایی هست ای جان | | 10 | 118 | 26 |
با قلم طرحی کشی بر پرده ای | | 9 | 122 | 18 |
بر عزیزی می فرستی پیک را | | 8 | 96 | 10 |
نام ایران جاودان در هر کجا | | 5 | 90 | 10 |
گذر ایام خود را گر چه تنها | | 6 | 132 | 11 |
نقد خود را بازسازی شاعرا | | 3 | 84 | 4 |
دوستی را در طبیعت ، رؤیتی | | 8 | 106 | 14 |
کمک کن خدایا که روزه ادا | | 11 | 125 | 18 |
خلق را همچون معلم رهنما | | 4 | 93 | 8 |
گر چه زخمی خورده ام از روزگار | | 9 | 109 | 16 |
جهان تنگ دیدند رها از قفس | | 5 | 91 | 8 |
به نیکی شود یاد در هر کجا | | 5 | 130 | 6 |
جلوه گر شد بار دانش چون چراغ | | 8 | 122 | 14 |
بس سعادت عابر از دنیا سرا | | 7 | 85 | 4 |
خطبه 87 نهج البلاغه : مؤلای متّقیان علی بن ابیطالب ( ع ) خبر غیبی وصف زشت ترین و خوب ترین انسان | | 3 | 107 | 4 |
فلک را می گرفتم من ز سرعت | | 7 | 92 | 14 |
پارسا مردی که دور از نازخواب | | 7 | 134 | 10 |
دست نااهلان زمینی بی صدا | | 9 | 92 | 14 |
هر یکی نامی جهانی بس شهیر | | 8 | 100 | 12 |
همچو بیدی ، دم به دم راکع ،سجود | | 6 | 92 | 4 |
صوم ماهی باشدش فطری نما | | 6 | 96 | 6 |
قدرتی پیدا ،جنایت بین خلق | | 8 | 92 | 20 |
کس نداند واقعیّت ، جز خدا | | 7 | 95 | 8 |
خوش به حالت والیا با رهنما | | 4 | 99 | 6 |
یاد فاضل شهر افتی شهروند | | 7 | 101 | 10 |
غریب خسته زمینی رها ز ما و منی | | 5 | 116 | 8 |
بر زمینی حال دارد مویه ای | | 8 | 98 | 10 |
با رکودی فکر ، مغزی انجماد | | 7 | 110 | 16 |
ایده آلی فکر دارد ، خبره ای | | 4 | 62 | 6 |
بین جمعی صاحبان ذوقی هنر | | 11 | 104 | 20 |
گل به رویش بوی خود را منتشر | | 7 | 105 | 13 |
با همان اخلاق نیکی جلوه گر | | 3 | 119 | 6 |
ثبت دفتر می شود بس ماجرا | | 4 | 76 | 8 |
ریشه کن کی می شود ای ربّنا | | 4 | 92 | 8 |
در مسیری گام تکراری نما | | 5 | 124 | 6 |
ای نهایت آرزو ، یاری مرا | | 8 | 89 | 10 |
ای که انسانی به حکمی لحظه ای | | 6 | 97 | 8 |
افکار را سُر ، پای هر کِشتی | | 5 | 80 | 8 |
صلح گیتی در جهانی پایدار | | 4 | 107 | 7 |
هر زبانی شیوه ای دارد درست | | 8 | 92 | 10 |
واقعیّت را شهودی ،ای عزیز | | 5 | 92 | 6 |
همچو هر یک عارفی در گوشه دیر | | 3 | 110 | 4 |
تحت فرمان عقل آدم هر زمان | | 6 | 81 | 10 |
به دوره ها نظری افکنی بگیری پند | | 5 | 100 | 8 |
با سیاهی روزگاری ما چکار | | 6 | 115 | 8 |
گنج حاصل رنج را گیرد به دست | | 2 | 93 | 4 |
عشق چون موج هویداست ولی | | 4 | 99 | 4 |
ای که گفتی .... | | 2 | 103 | 2 |
این چه فرّی در جهانی رو فنا | | 3 | 77 | 6 |
محترم انسان والا هر کجا | | 2 | 51 | 2 |
یاد کن از هر هنرمندی بنام | | 3 | 67 | 9 |
چون شتر افراد دارد کینه ای | | 3 | 109 | 4 |
با خودی خلوت چه کردی ای عزیز | | 4 | 70 | 8 |
نشنوی فریاد خونین درد را | | 4 | 70 | 8 |
تحت فرمان آسمان ها با زمین | | 4 | 76 | 8 |
بشنوی از هر جهت آوا خدا | | 2 | 69 | 2 |
رو به ویران خانه هایی ای رها | | 3 | 78 | 6 |
فکر فردایی چه زاید روزگار | | 2 | 92 | 2 |
منع باید با زبان دستی و دل | | 2 | 71 | 2 |
شرح ده شیخ ماجرایی را | | 3 | 66 | 5 |
ای نگاهت جلوه ای از آفتاب | | 4 | 71 | 6 |
زوایا دید آدابی نه یکسان | | 3 | 73 | 6 |
شاعری از خطّه آذربایجان | | 3 | 222 | 4 |
بخواب کودک امید روزهای فراق | | 3 | 86 | 4 |
عارفی نامی خداگون بس نکو | | 3 | 73 | 6 |
یاد یاری ده چهار افتی دلا | | 1 | 52 | 2 |
جذبه عشقی شد برون از کیش خود | | 4 | 65 | 4 |
27 شهریور؛ روز شعر و ادب پارسی و روز بزرگداشت استاد شهریار | | 1 | 73 | 2 |
که او خود تحت فرمان امر یاهو | | 3 | 93 | 4 |
ذرّه را بیند معلّق در فضا | | 1 | 53 | 2 |
نگاه کن ببین به عشق او مگر | | 1 | 61 | 2 |
کوله باری شعر شد در زندگی افکار من | | 1 | 57 | 4 |
تمامی غرق در اندیشه کبری | | 1 | 85 | 2 |
تلاش کن که بجنبد لوای ایرانی | | 1 | 56 | 2 |
ماه بانو چهر را در ناز خواب | | 2 | 58 | 4 |
دست جلّادان چو ضحّاکی ولی | | 1 | 69 | 8 |
یاد روزی کن اراذل در زمین | | 1 | 89 | 4 |
لاک خود هر کس اگر ملکی شود جانا خراب | | 1 | 67 | 6 |
بین عامی خشم گردد گر عیان | | 1 | 79 | 4 |
چون که حاکم نیست دینی را ادا | | 2 | 66 | 6 |
زاده عشقی مرگ را طالب چکار | | 3 | 74 | 4 |
اقتباسی را نبینی پی نما | | 3 | 72 | 4 |
نگاه عیب نما عیب را چو سایه نما | | 1 | 51 | 2 |
یاوه گویانی بخاطر تکّه نان | | 3 | 99 | 4 |
دین خود را تحت فرمانی ادا | | 2 | 92 | 4 |
با دلی غمگین نگاهی با اسف | | 2 | 107 | 2 |
چه باید گفت حق باطل نه پیدا | | 2 | 87 | 2 |
دوری ز کشت ترک جهانی به خوشه ای | | 3 | 98 | 6 |
گوشه ای بنشسته ای چشم انتظار | | 1 | 34 | 2 |